Saturday 21 April 2012

अतीत बेमानी है और सपने नाकारा..

कोई 3 महीने पहले आर.जी.पी.वी. की सेमेस्टर परीक्षाओं  के समाप्त होने पर  ये लिखा था---
" भटकता मन भटकता मस्तिष्क आज फिर भाव्विभूत है...
समय चक्र पर प्रगति पथ पथ पर यह ढूंढे जीवन- दूत है"....
एल.एन.सी.टी. की छुट्टियां औए बेरंग गुजरते दिन.... सायनाइड की तलाश में भटकता मन...
इसके अलावा ये भी लिखा था---
" i know that the world is not going to be end by the end of 2012 but i will do something which will be my end"... 
अब इन चीजों को मैंने मोबाइल में टाइप किया और कुछ लोगो को मैसेज कर दिया... पता नहीं कुछेक ने इसे क्या समझा और मुझे टेंशन दे डाली...
खैर. ऐसी फ़ालतू लाइन लिख बैठता हूँ जब  कभी छुट्टियां  साथ होती है मेरे.. अभी अपने होमटाउन गया था पिछले महीने.. होली मनाने के बहाने को साथ लेकर और साथ में एक झूठी उम्मीद भी लेकर गया था  एक खोयी तस्वीर को तलाशने के इरादे से...
अब ये मेरी अंध-आस्था है या " सोने को गिरवी रखकर कर्ज लेने की आदत" जो मेरा पीछा नहीं छोडती..
मैं एक आशावादी इंसान हूँ, ऐसा मुझे लगता है... पिछले कुछ समय से मैंने कोशिश की थी १०-१२ साल के अतीत को वर्तमान के साथ जोड़ने की... कई पुराने चेहरे मिले और उनका साथ भी छूटता रहा, या यूँ कह दूँ की उनका साथ पूरी तरह छूट गया..
हकीकत बयान करूँ तो यह बात सामने आती है कि. मुझे भी खुद को बदलना चाहिए था, बदलते  वक़्त के साथ लेकिन शायद ऐसा संभव नहीं हो पाया.....
मेरे लिया सारी सुनहरी यादें  भयावह दु-स्वप्न बन गयी, ये बातें मुझे कल कि तारीख तक काफी इमोसनल लग रही थी कल कि तारीख  तक लेकिन आज नहीं... अच्छा हुआ  कि अतीत से संपर्क साधने के तमाम रास्ते मैंने कल खुद ही मिटा डाले..अब खुद पर भरोसा है कि दुबारा मेरे खुद कि तरफ से कभी कोई कोशिश नहीं होगी इस रास्ते पर कदम रखने कि और झटके खाने कि, और ये नसीहत सुनने की "कि मैं किस हद तक गिर चूका हूँ".. और फिर मैं वो समझाईश भी नहीं सुन सकता  जो किसी भी तरह के अकेलेपन का मुझे एहसास दिलाये.....

Wednesday 25 January 2012

गणतंत्र दिवस पर कुछ शब्द मेरी तरफ से

कहाँ से शुरुआत करूँ  कुछ समझ में नहीं आ रहा... फिर भी सोचा आज कुछ लिखना अच्छा रहेगा... आज हम २६ जनवरी मना रहे हैं... सुबह उठा तो आज की सुबह भी कुछ अनोखी नहीं थी...  हालांकि कल रात में ही ये सोच लिया था कि सुबह जगने पर किसी स्कूल में जाऊंगा और सलामी दूंगा अपने तिरंगे को जो हमारी शान है..  और सुबह  उठ भी गया था स्कूल के दिनों कि तरह उन यादो को ताज़ा करने के लिए जो कुछ साल पहले तक २६ जनवरी के कई दिन पहले ही पैदा हो जाया करते थे...
पर अब ये सारी बातें बेमानी लगने लगी हैं.. खुद से ही पूछता हूँ ---- आखिर क्यूँ? कोई जवाब नहीं सूझ रहा.. कुछ ख़यालात आ भी रहे हैं तो वो पानी के बुलबुले कि तरह गायब हो जा रहे हैं,,,
 हालांकि यहाँ भोपाल में आने के बाद ये दूसरा मौका है जब मैं  आज का दिन भी शायद यूँ ही गवाँ बैठूं... लेकिन   शाम शायद कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाने का और बी. एच. ई. एल.  में "अखिल भारतीय कवि सम्मलेन " सुनने का मौका मिल सके..
 शायद मैं यहाँ मुद्दे से भटक रहा हूँ या फिर मुद्दे पर आ रहा हूँ ... मैंने आज सुबह अपने कुछ मित्रों को ये मैसेज भी किया था कि अगर आप  लोगों के पास कुछ समय हो तो आप प्लीज़ आज एक ज़िम्मेदार  भारतीय होने के नाते    " भारतीय संविधान" को कुछ मिनट ज़रूर देंगे और उसकी कुछ बातें जानने समझने कि कोशिश जरूर करेंगे... पता नहीं क्यूँ ऐसी बातें कुछ लोगों को फिर बकवास लग गयी? लेकिन अब मुझे इन बातों का जवाब नहीं ढूँढना है, और अगर ढूँढना भी है तो वो खुद से ही...
अब आज कि तारीख २६ जनवरी पर गर्व नहीं होता ...  क्यों? मुझे नहीं जानना या नहीं बताना, या यूं कह दूं कि मुझमे बतलाने कि काबिलियत नहीं... समझने कि काबिलियत नहीं.. 

Friday 9 December 2011

तुम्हे भूलकर क्यों न जियूँ.....

क्यूँ न तड़पूं तुम्हारी आवाज सुनने की खातिर...
इसी आवाज की कशिश ने वर्षों तड़पाया  है मुझे....
तुम्हे भूलकर क्यूँ न जियूँ ....
कि तुमने भी तो भूलाया है मुझे...

आँखों  में नींद नहीं रहती थी, रहते  थे सिर्फ तुम्हारे ख्वाब...
इन्हीं  ख्वाबों ने ही  तो वर्षों बहलाया है मुझे ......
कैसे  टूट जाने दूँ इन ख्वाबों को , जिन्होंने  तुम्हारे  साथ का एहसास दिलाया है मुझे....
तुम्हे भूलकर  क्यूँ न जियूँ.....
कि तुमने भी तो भूलाया है मुझे.......

तुम्हारी तस्वीर का दीदार भी अब सुकून नहीं देता....
कि कतरा-कतरा रूलाया है मुझे....
मेरी ख्वाहिशे, मेरे अरमान सब धुंधले पड़ गए थे...
जाने अनजाने तुम्हीं  ने  अब भड़काया है इन्हें ....
तुम्हें भूलकर क्यूँ न जियूँ ....
कि तुमने भी तो भूलाया है मुझे.....

क्या कहूँ तुम्हारे बारे में .....
यही न --- कि तुम तो पहले से पत्थर दिल थी....

तुम तो पहले से पत्थर दिल थी....
अब पत्थर दिल बनाया है मुझे....
तुम्हें भूलकर क्यूँ न जियूँ ....
कि तुमने भी तो भूलाया है मुझे...
                                             

Tuesday 11 October 2011

गजलों का रूह से परिचय आपने करवाया....

कल रात करीब १२:०० बजे मैं अपने  राज्य झारखण्ड से वापस भोपाल आया...  मैंने आते ही अपने कुछ  मित्रो से बात की और फिर यात्रा की थकान के चलते सो गया...   आज सुबह उठने के साथ जब अखबार पर नज़र पड़ी तो देखा की ग़ज़ल सम्राट "जगजीत सिंह  जी " नहीं रहे... 
आज  भले ही  युवाओं की उंगलियाँ लैपटॉप और मोबाइल के की-पैड  पर थिरकती हों, भले ही वो रॉक मयूजिक पसंद करते हो.. पर कभी न कभी उनके दिल  से इन गजलों को सुनने की आवाज जरूर सुनाई देती है मुझे...  किसी ने एक बार जगजीत सिंह जी से पुछा था की "आप युवाओं से इतना क्यों घिरे रहते हैं?" उनका कहना था की- बाबु (विवेक) ऊपर चला गया है और वह अपने दोस्तों से कहता होगा की मेरे पापा को अकेला मत छोड़ना .. इसलिए ये सब मेरा ख्याल रखने चले आते हैं मेरे पास..   
अपने पुत्र के मरने के बाद इनके गाए गजलों में और भी दर्द सुनाई  देते हैं..
जगजीत सिंह के ग़ज़ल ऐसे हैं जो आंसू और मुस्कान दोनों देते हैं और कभी - कभी तो ये साथ साथ आ जाते हैं... उनके गजलों ने हमे ज़िन्दगी का अर्थ और मतलब दोनों समझाया है...
 जब से मैं भोपाल आया देखा की यहाँ  गजलों और शायरों को काफी पसंद किया जाता है... मेरे भाई साहब के कुछ  मित्रो  और मेरे एक परम मित्र  "आदरणीय सुजीत कुमार बिमल जी " के संपर्क में रहने के बाद भी इनकी ओर काफी हद तक मुखातिब  हुआ मैं..  
अभी जगजीत सिंह जी २८ सितम्बर को भोपाल भी आने वाले थे अपने किसी ग़ज़ल के सिलसिले में और यहाँ भारत भवन के मंच  पर उनका  ग़ज़ल का कार्यक्रम भी तय किया गया था, पर वो केवल तय ही रह पाया और केवल  एक गुमनाम तारीख में सिमट कर  रह गया....
उनके द्वारा गाया गया ग़ज़ल-- "ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो, भले छिन  लो मुझसे मेरी जवानी.... ये एक ऐसा ग़ज़ल है जिसकी ऊँगली पकड़कर कोई भी अपनी बचपन की यादों में पहुँच जाता है...  ऐसे अनेक ग़ज़लों को मूर्त रूप दिया है जगजीत सिंह जी ने..  "होंठो से छू लो तूम मेरा गीत अमर कर कर दो" .... इसके अलावे और भी तमाम ग़ज़ल  जिनकी कोई गिनती नहीं है..
ये भारत के एक ऐसे सितारे रहे जिन्हें संगीत और ग़ज़ल की दुनिया में आने वाली कई पीढियां भी ताउम्र नहीं भूला पाएंगी...   

Monday 3 October 2011

यादों के साए में ज़िन्दगी..

यादों के  साए में कट रही थी ज़िन्दगी,
हर पल तेरा हँसना -मुस्कुराना नजर आता था...
यूँ मुफलिस हुए थे तेरे जाने के बाद,
बस तेरा संवारना और खुद का बिखरना नजर आता था...
यादों के साए में कट रही थी ज़िन्दगी,
सिर्फ तेरा और तेरा बरसना नजर आता था..

और अब जब तूम फिर से मिल गयी हो..

तुम्हारे जाने के बाद यूँ खोयी थी निगाहें तुम्हारी तलाश में...
कि फिर से तुम्हारे मिलने के बाद,
जज्बातों का हर काफिला तेरे संग नजर आता है..
खुद से खुद के मिलने का एहसास मिला तुमसे फिर से जुड़ने के बाद...
हर पल तेरे संग बिताया हर वो लम्हा नज़र आता है... 

अब तो तेरे साए में कट रही है ज़िन्दगी...
सिर्फ तेरा और तेरा चेहरा नज़र आता है...